भगवती सीता श्रीरामचंद्र की शक्ति और राम-कथा की प्राण है। यद्यपि वैशाख मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को जानकी-जयंती मनाई जाती है, किंतु भारत के कुछ क्षेत्रों में फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को सीता-जयंती के रूप में मान्यता प्राप्त है। ग्रंथ निर्णयसिंधुमें कल्पतरु नामक प्राचीन ग्रंथ का संदर्भ देते हुए लिखा है, फाल्गुनस्यचमासस्यकृष्णाष्टम्यांमहीपते।जाता दाशरथेपत्नी तस्मिन्नहनिजानकी., अर्थात् फाल्गुन-कृष्ण-अष्टमी के दिन श्रीरामचंद्र की धर्मपत्नी जनक नंदिनी जानकी प्रकट हुई थीं। इसीलिए इस तिथि को सीताष्टमीके नाम से जाना गया।
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि त्रेतायुगमें जब भगवान विष्णु श्रीरामचंद्र के रूप में अयोध्या नरेश दशरथ के महल में अवतीर्ण हुए, तभी विष्णु जी की संगिनी भगवती लक्ष्मी महाराज जनक की राजधानी मिथिला में अवतरित हुई। मान्यता है कि एक दिन राजा जनक खेत जोत रहे थे। एक स्थान पर उनके हल की फाल रुकी, तो उन्होंने देखा कि फाल के निकट गढ्डे में एक कन्या पडी है। राजा जनक उस कन्या को अपनी पुत्री मानकर लालन-पालन करने लगे। संस्कृत में हल की फाल को सीता कहते है। इसलिए जनक ने उसका नाम सीता रख दिया।
वेद-उपनिषदों में सीता के स्वरूप का परिचय विस्तार से दिया गया है। ऋग्वेद में स्तुति की गई है, हे असुरों का नाश करने वाली सीते! आप हमारा कल्याण करे। सीतोपनिषद्में सीता को ही मूल प्रकृति अर्थात् आदि शक्ति माना गया है। इस उपनिषद् में उनका परिचय देते हुए कहा गया है- जिसके नेत्र के निमेष-उन्मेष मात्र से ही संसार की सृष्टि-स्थिति-संहार आदि क्रियाएं होती है, वह सीताजीहै। गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में सीताजीको ऐसे नमन करते है- संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली, समस्त क्लेशों को हरने वाली, सब प्रकार से कल्याण करने वाली, रामचंद्र की प्रियतमा सीताजीको मैं नमस्कार करता हूं।
भगवान श्रीराम की तरह सीता भी षडैश्वर्य-संयुक्ताहै। पद्म पुराण में सीताजीको जगन्माता और भगवान राम को जगत-पिता बताया गया है। अध्यात्म रामायण का कहना है कि एकमात्र सत्य यही है कि श्रीराम ही बहुरूपिणीमाया को स्वीकार कर विश्वरूप में भासित हो रहे है और सीताजीही वह योगमाया है। महारामायणमें सीताजीको ही समस्त शक्तियों का श्चोतघोषित किया गया है।
विवाह से पूर्व सीता महाराज जनक की आज्ञाकारिणी पुत्री तथा विवाहोपरांतमहाराज दशरथ की अच्छी बहू के रूप में सामने आती है। वे रामचंद्र जी की सच्ची सहधर्मिणी साबित होती है। वनवास के कष्टों की परवाह किए बिना वे पति के साथ वन-गमन करती है। वे वाल्मीकि आश्रम में अपने पुत्रों लव-कुश को अच्छे संस्कार देती है। पुत्री, पुत्रवधू, पत्नी और मां के रूप में उनका आदर्श रूप सामने आता है। सीता जिस कुशलता से कर्तव्यों का पालन करती है, वह प्रेरणादायीहै। रामचंद्रजीको जब सीताजीने वरमालापहनाई, तो वे श्रीराम बन गए। वस्तुत:श्रीराम की श्री सीता ही है। इसीलिए हम सीतारा कहते है या श्रीरा। सही मायनों में रामचंद्र की श्री-रूपा शक्ति सीता ही है। उनका चरित्र अनुकरणीय है।
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि त्रेतायुगमें जब भगवान विष्णु श्रीरामचंद्र के रूप में अयोध्या नरेश दशरथ के महल में अवतीर्ण हुए, तभी विष्णु जी की संगिनी भगवती लक्ष्मी महाराज जनक की राजधानी मिथिला में अवतरित हुई। मान्यता है कि एक दिन राजा जनक खेत जोत रहे थे। एक स्थान पर उनके हल की फाल रुकी, तो उन्होंने देखा कि फाल के निकट गढ्डे में एक कन्या पडी है। राजा जनक उस कन्या को अपनी पुत्री मानकर लालन-पालन करने लगे। संस्कृत में हल की फाल को सीता कहते है। इसलिए जनक ने उसका नाम सीता रख दिया।
वेद-उपनिषदों में सीता के स्वरूप का परिचय विस्तार से दिया गया है। ऋग्वेद में स्तुति की गई है, हे असुरों का नाश करने वाली सीते! आप हमारा कल्याण करे। सीतोपनिषद्में सीता को ही मूल प्रकृति अर्थात् आदि शक्ति माना गया है। इस उपनिषद् में उनका परिचय देते हुए कहा गया है- जिसके नेत्र के निमेष-उन्मेष मात्र से ही संसार की सृष्टि-स्थिति-संहार आदि क्रियाएं होती है, वह सीताजीहै। गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में सीताजीको ऐसे नमन करते है- संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली, समस्त क्लेशों को हरने वाली, सब प्रकार से कल्याण करने वाली, रामचंद्र की प्रियतमा सीताजीको मैं नमस्कार करता हूं।
भगवान श्रीराम की तरह सीता भी षडैश्वर्य-संयुक्ताहै। पद्म पुराण में सीताजीको जगन्माता और भगवान राम को जगत-पिता बताया गया है। अध्यात्म रामायण का कहना है कि एकमात्र सत्य यही है कि श्रीराम ही बहुरूपिणीमाया को स्वीकार कर विश्वरूप में भासित हो रहे है और सीताजीही वह योगमाया है। महारामायणमें सीताजीको ही समस्त शक्तियों का श्चोतघोषित किया गया है।
विवाह से पूर्व सीता महाराज जनक की आज्ञाकारिणी पुत्री तथा विवाहोपरांतमहाराज दशरथ की अच्छी बहू के रूप में सामने आती है। वे रामचंद्र जी की सच्ची सहधर्मिणी साबित होती है। वनवास के कष्टों की परवाह किए बिना वे पति के साथ वन-गमन करती है। वे वाल्मीकि आश्रम में अपने पुत्रों लव-कुश को अच्छे संस्कार देती है। पुत्री, पुत्रवधू, पत्नी और मां के रूप में उनका आदर्श रूप सामने आता है। सीता जिस कुशलता से कर्तव्यों का पालन करती है, वह प्रेरणादायीहै। रामचंद्रजीको जब सीताजीने वरमालापहनाई, तो वे श्रीराम बन गए। वस्तुत:श्रीराम की श्री सीता ही है। इसीलिए हम सीतारा कहते है या श्रीरा। सही मायनों में रामचंद्र की श्री-रूपा शक्ति सीता ही है। उनका चरित्र अनुकरणीय है।